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ज़कात (इस्लामी टैक्स/ धार्मिक दान) के सिद्धांत से सुधर जाएगी पूरी दुनियाँ की अर्थव्यवस्था-

शेख दानिश

रायपुर : टैक्स किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में एक निर्णायक भूमिका निभाता है, लगभग सभी देशों में एक तरह का टैक्स लिया जाता है जिसे इनकम-टैक्स (यानी आय-कर) कहते हैं। यानी सालाना हमारी जितनी आमदनी होती है इसपर हमें अपनी आमदनी का एक निश्चित हिस्सा टैक्स के रूप में सरकार को देना होता हैं, जबकि इस्लाम में ज़कात (इस्लामी टैक्स या धार्मिक दान) किसी व्यक्ति के इनकम (यानी आमदनी) पर नहीं बल्कि सेविंग (यानी बचत) पर देना होता है जोकि पूरे 1 हिजरी (चंद्र) वर्ष ग़ुज़ार जाने के बाद यदि निसाब (यानी विशेष माल की विशेष मात्रा) बचती हो तो मुसलमानों को इसकी क़ीमत का 2.5% ग़रीब ज़रूरतमंदों को ज़कात के रूप में देना अनिवार्य होता है।

इस्लाम में उनके लिए जमाख़ोरी पर सज़ा है जो अपना माल जमा करके रखते हैं और अल्लाह की राह में ख़र्च नहीं करते हैं-
अल्लाह-पाक़ क़ुरआन में फ़रमाता है कि, “और जो लोग सोना और चाँदी का ज़ख़ीरा करते हैं और उसे अल्लाह की राह में ख़र्च नहीं करते तो उन्हें दर्दनाक आज़ाब (सज़ा) की ख़बर सुना दें।” (अल-क़ुरआन, 9:34)

इस्लाम में जो लोग माल जमा करते हैं और जो अल्लाह की राह में ग़रीब ज़रुरतमंदों को अपने माल में से कुछ हिस्सा जो मुक़र्रर किया गया है चेरिटी (यानी दान) नहीं करते हैं उनको दर्दनाक सज़ा से डराया गया है।

इस्लाम में हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि माल हमेशा एक अमीर तबक़े के पास जमा ना रहे और वो माल ग़रीब ज़रुरतमंदों में भी संचारित (सर्कुलेट) होता रहे ताकि दुनियाँ में सामाजिक स्तर पर संतुलन क़ायम रहे। इससे अमीरी और ग़रीबी के बीच का फासला कम होता है और समाज के हर तबक़े के हाँथों में यदि पैसा रहेगा तो वो बाज़ार में जाकर उसे ख़र्च भी करेगा इससे बेचने और ख़रीदने पर आधारित हमारी अर्थव्यवस्था बढ़त की ओर अग्रसर होती रहेगी।

पैग़म्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फ़रमाते हैं कि, “ज़क़ात दिया करो क्योंकि लोगों पर ऐसा ज़माना आएगा जब एक शख़्स अपना सदक़ा (दान) देने एक जगह से दुसरी जगह बाहर फिरेगा लेकिन उसे कोई इसको स्वीकार करने वाला नहीं मिलेगा।” (सहीह बुख़ारी, किताबुल फ़ितन, हदीस नंबर 7120)

यह हदीस दुनियाँ के एतबार से तो दिखती है कि सभी लोग तरक्की कर जाएंगे और कोई ज़कात लेने वाला ग़रीब नहीं होगा परंतु यही हदीस मुसलमानों को डराती भी है कि इस्लाम की पाँच बुनियादी बातों में से जो ज़क़ात है जिसे एक मुस्लिम वर्ग पर अनिवार्य किया गया है उसकी अदायगी एक समय ऐसा आएगा जब संभव नहीं हो पाएगी इसलिए मुसलमानों को ज़क़ात देते रहने पर ज़ोर दिया गया है।

अल्लाह-पाक़ क़ुरआन में फ़रमाता है कि, “बेशक़ जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे काम किए और नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी उनके लिए उनके रब के पास उनका अज्र (ईनाम) है, और उनपर (आख़िरत में) ना कोई ख़ौफ़ होगा और ना वोह रंजीदा होंगे। (अल-क़ुरआन, 2:227)

इस्लाम में जहाँ ज़रुरतमंदों पर ख़र्च करने का बढ़ावा दिया गया है वहीं फ़िज़ूल ख़र्ची से भी रोका गया है-
अल्लाह-पाक़ क़ुरआन में फ़रमाता है कि, “और रिश्तेदारों को उनका हक़ अदा करो, और मोहताजों और मुसाफ़िरों को भी (दो) और (अपना माल) फिज़ूल ख़र्ची में मत उड़ाओ।”

“बेशक फिज़ूल ख़र्ची करने वाले शैतान के भाई हैं और शैतान अपने रब का बड़ा ही नाशुक्रा है।” (अल-क़ुरआन, 17:26 और 27)

ज़क़ात की गणना में साढ़े बावन तोला चाँदी या साढ़े सात तोला सोने का वजन ‘निसाब’ कहलाता है-
माल में अगर साढ़े सात तोला (या उससे ज़्यादा) सोना हो और एक हिजरी वर्ष के बाद भी यह साढ़े सात तोला सोने के वजन से कम ना हुआ हो तो इसकी मौजूदा बाज़ार की क़ीमत पर 2.5% ज़कात देनी होगी यदि साल के शुरुआत में सोने का निसाब था परंतु साल के अंत में यह निसाब न रहा यानी साढ़े सात तोला से सोना कम बचा तो इसपर ज़क़ात नहीं बनेगी।

इसी तरह सिर्फ चाँदी हो तो साढ़े बावन तोला वज़न पूरा हो जाये और एक हिजरी साल गुज़ार जाए तो इसपर ज़कात बनेगी वरना नहीं।

अगर ना निसाब के बराबर सोना हो, ना चाँदी और न इतना रुपया हो जिससे चाँदी के निसाब के बराबर (यानी साढ़े बावन तोला) चाँदी खरीदी जा सके तो जितना ज़कात की गणना में शामिल होने वाला माल है उन सभी की मौजूदा कीमत को मिलाकर देखेंगे कि इससे चाँदी के निसाब के बराबर की चाँदी (यानी साढ़े बावन तोला) खरीदी जा सकती है कि नहीं अगर खरीदी जा सकती हो तो इसपर 2.5% ज़कात बनेगी वरना नहीं।

ज़कात की गणना में शामिल होने वाला माल चार तरह का है-
सोना, चाँदी, रुपया और सिर्फ बेचने की नीयत से खरीदा गया माल। इन सभी के योग से ज़क़ात के माल की गणना की जाती है और उसपर 2.5% ज़ाक़त दी जाती है।

दो उदाहरणों मालूम करें कि कोई माल ज़कात की गणना में शामिल होने वाला माल है या नहीं-
उदाहरण-1: कार या बाईक (घर पर उपयोग हेतु रखी हुई)?
कार या बाईक ना सोना है, ना चाँदी है, ना रुपया है, और ना ही वो माल है जो सिर्फ बेचने की नीयत से खरीदा है (अव्वल नियत खुद इस्तेमाल करने की है और बाद में बेचने की नीयत हुई तो ये माल ज़कात वाला माल नहीं होगा क्योंकि इसमें ख़ुद इस्तेमाल करने की और बेचने की दोनों तरह की नियतें शामिल हो गईं) इसलिए इस कार या बाईक पर ज़कात नहीं है।

उदाहरण-2:- कार या बाईक (अपने शोरूम में रखी हुई)?
शोरूम में रखी कार या बाईक सोना नहीं है, चाँदी भी नहीं है, और रुपया भी नहीं है, लेकिन ये वो माल है जो सिर्फ बेचने की नीयत से कंपनी से खरीदी गई है, तो ये माल ज़कात की गणना में शामिल होने वाला माल होगा, इसको ज़कात देने के लिए कुल ज़कात की गणना वाले माल में जोड़कर ज़कात निकली जाएगी।

जक़ात कितनी निकालनी होती है? एक उदाहरण से समझते हैं-
मान लीजिए, अगर आपके पास निसाब के बराबर सोना नहीं है और ना ही निसाब के बराबर चाँदी है। इस सूरत में ज़क़ात की गणना में शामिल होने वाले चारों या इनमें से जो-जो माल मौजूद हों उन मालों को मिलाकर देखेंगे कि इसकी क़ीमत साढ़े बावन तोला चाँदी की मौजूदा बाज़ार की क़ीमत के बराबर या उससे ज़्यादा बनती है या नहीं, अगर बनती हो तो इसपर 2.5% ज़ाक़त दी जाएगी।

मान लेते हैं कि एक ग्राम चाँदी की आज की कीमत- 44/- प्रति ग्राम (अगर 11.66 ग्राम = 1 तोला) है।
यानी, 44 x 11.66 = 513/- (एक तोला की क़ीमत) होगी।
तो, 513 x 52.5 (चाँदी का निसाब) = 26,932/- होगा।

यानी, अगर आपके पास सोना, चाँदी, रुपया और माले-तिजारत (वो माल जो सिर्फ और सिर्फ बेचने की नीयत से ख़रीदा हो) की क़ीमत मिलकर यदि 26,932/- हो जाती है तो इसपर 2.5% ज़कात बनेगी। यानी, इसकी क़ीमत का 2.5% निकालें-
26,932 x 2.5% = 673/- (आपको ज़कात निकालनी है)

इसी तरह से जोड़ते चलें और देखें कि आपकी कितनी ज़कात बनेगी।

ज़ाक़त किसपर अनिवार्य है?-
ज़ाक़त हर उस बालिग़ मुसलमान शख़्स (मर्द और औरत दोनों) पर अनिवार्य (फ़र्ज़) है जिसके पास निसाब के बराबर माल हो और उसपर पूरा हिजरी साल गुज़ार जाए तो उसपर ज़क़ात का देना अनिवार्य है।

ज़ाक़त के लिए शर्त-
√ मुसलमान होना।
√ आकिल (अक़्ल वाला जो पागल ना हो) और बालिग़ होना।
√ माल का मालिक होना।
√ माल का निसाब के बराबर होना।
√ उस माल पर हिजरी साल के गुज़ार जाने पर निसाब से कम न होना।

ऊपर के शराइत पूरी होने पर कुल निसाब का 2.5% ज़ाक़त बनेगी।

क़र्ज़ होने पर क्या करें-
क़र्ज़ 2 तरह के होते हैं:-
एक क़र्ज़ मियादी (जिसपर कोई मियाद मुक़र्रर हो यानी प्रति माह किश्त बानी हो और तयशुदा साल तक उस क़र्ज़ को अदा करना हो)।
और क़र्ज़ दूसरा ग़ैर-मियादी (जिसपर कोई मियाद मुक़र्रर ना हो और क़र्ज़ देने वाला कभी भी उस क़र्ज़ का मुतालबा कर सकता हो)।

√ मियादी क़र्ज़ को कुल माल में से उस माह की किश्त घटाएंगे और इसको घटाने पर कुल माल अगर निसाब के बराबर बचता हो तो ज़ाक़त बनेगी वरना नहीं।

√ ग़ैर-मियादी क़र्ज़ को पूरा कुल माल में से घटाएंगे और इसको घटाने पर कुल माल अगर निसाब के बराबर बचता हो तो ज़ाक़त बनेगी वरना नहीं।

रमज़ान के पाक़ महीने में ज़ाक़त देना-
अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से पूछा गया कि कौनसा दान सबसे अच्छा है? उन्होंने फ़रमाया, “रमज़ान का दान।” (जामेह तिर्मिज़ी, किताबुल ज़कात, हदीस नंबर 663)

इसलिए मुसलमान रमज़ान में ज़्यादा से ज़्यादा ज़कात निकलते हैं।

पैग़म्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया कि, “एक ग़रीब शख़्स को दान देना दान (मात्र) है, और अपने रिश्तेदार को देना दो चीजें हैं, दान (देना) और रिश्तेदारी के संबंधों को बनाए रखना। (सुनन निसाई, किताबुल ज़कात, हदीस नंबर 2582)

इसलिए ज़कात देने में यह भी ख़्याल रखा जाता है कि रिश्तेदार यदि ज़कात लेने के अधिकारी हों (यानी उनके पास ज़कात देने तक का निसाबी माल न हो) तो अपने रिश्तेदारों को सबसे पहले ज़कात से उनकी माली मदद की जाए।

अल्लाह की रहमत का ज़रिया है और मुसीबतों से बचाता है-
एक शख़्स ने पूछा, ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम), किस तरह का दान सबसे अच्छा है? उन्होंने फ़रमाया, “तब दान करना (सबसे अच्छा है) जब आप अच्छे स्वास्थ्य में होते हैं, और कंजूस महसूस करते हैं, लंबे जीवन की उम्मीद करते हैं और ग़रीबी से डरते हैं।” (सुनन निसाई, किताबुल ज़कात, हदीस नंबर 2542)

ज़कात के ज़रिए से अपनी दुनियाँ तो सुधरती ही है साथ दुसरों की आर्थिक तकलीफें भी दूर होती हैं इसके साथ समाज में अमीरी और ग़रीबी का फासला तो कम होता ही है इसके साथ पैसों के बाज़ार में संचार से देश की अर्थव्यवस्था भी सुधरती है और अल्लाह इसके जरिये मुसीबतों को भी दूर कर देता है।

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